दैनिक
जागरण: नइ दिल्ही: Sunday, 19 July 2015.
पिछले
दिनों इसी पृष्ठ पर ‘निजता
का अतिक्रमण’ शीर्षक से प्रकाशित लेख
पढ़ने से ऐसा लगता है कि लेखक राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के दायरे
में लाने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन
लेख में निम्नलिखित वाक्य भी पढ़ने को मिलते हैं-जवाबदेही और पारदर्शिता जनतंत्र
के मूल आधार हैं; धन संग्रह कि पारदर्शिता
अनुचित मांग नहीं है; बेशक
दल संचालन को भी पारदर्शी होना चाहिए; मतदाता
को राजनीतिक दलों की आय के स्त्रोत जानने का अधिकार है; दलतंत्र सर्वसमावेशी है, इसे और व्यापक समावेशी, गहन जनतंत्री और शत प्रतिशत
पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। यह सब पढ़कर भ्रम होता है कि शायद लेखक हृदयनारायण
दीक्षित यह फैसला नहीं कर पा रहे कि राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे
में लाया जाए या नहीं। इस भ्रम को दूर किया जाना जरूरी है। सबसे पहले तो मैं यह
स्पष्ट करना चाहता हूं कि आज की तारीख में छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल आरटीआइ कानून
के तहत पब्लिक अथॉरिटी (सार्वजनिक प्राधिकार) हैं। यह निर्णय आरटीआइ लागू करने
वाली सबसे बड़ी संस्था, सीआइसी
(केंद्रीय सूचना आयोग) की संपूर्ण पीठ (फुल बेंच) ने सर्वसम्मति से 3 जून, 2013 को लिया था। इस फैसले को
आज तक किसी ने भी और कहीं भी चुनौती नहीं दी है। राजनेताओं का कहना है कि राजनीतिक
दल सूचना अधिकार कानून के दायरे में नहीं आते। दल सरकार से कोई आर्थिक सहायता नहीं
पाते। दलों को सार्वजनिक प्राधिकार (पब्लिक अथॉरिटी) घोषित करने से ये भी शासन की
इकाई होंगे इसलिए इन्हें पब्लिक अथॉरिटी की कानूनी परिभाषा में नहीं लाया जा सकता।
किसी भी संस्था को ‘पब्लिक
अथॉरिटी’ घोषित करना किसी की अपनी
मर्जी नहीं है। हर कानून में हर शब्द और वाक्यांश की परिभाषा दी जाती है। ‘पब्लिक अथॉरिटी’ की परिभाषा आरटीआइ एक्ट के
सेक्शन 2(एच) में दी हुई है। आरटीआइ को लागू करने वाली सबसे बड़ी संस्था सीआइसी
है। जब सीआइसी की संपूर्ण पीठ ने, एक
नहीं दो बार, सर्वसम्मति कहा है कि छह
राष्ट्रीय राजनीतिक दल आरटीआइ कानून के तहत पब्लिक अथॉरिटी हैं, तो राजनेताओं द्वारा इसका खंडन
करने का कोई मतलब नहीं है।
जहां
तक दलों के सरकार से कोई आर्थिक सहायता न लेने और राजकोष से धन न लेने का सवाल है, इसका खंडन तो सीआइसी के 3 जून, 2013 के फैसले में किया गया
है। इस खंडन का एक ही उदाहरण काफी होना चाहिए। सीआइसी के फैसले के अनुसार, इन छह दलों को मात्र तीन साल
(2006-07, 07-08, और 08-09) में 509.79 करोड़
रुपये की छूट मात्र आय कर में मिली। अगर यह छूट न मिलती तो यह 509.79 करोड़ रुपये
देश के अर्थात देश की जनता के खजाने में जाते। इसके अलावा सभी राजनीतिक दलों को
दिल्ली के सबसे महंगे लुटियंस जोन में विशाल बंगले सरकार ने बहुत सस्ते किराये पर
दफ्तर बनाने के लिए दिए हुए हैं। यह भी सरकारी पैसा लेने का अप्रत्यक्ष तरीका है।
इसके अलावा भी सभी दलों को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर अपना चुनाव प्रचार करने के लिए
नि:शुल्क समय मिलता है। अगर उस प्रसारण समय की वाणिज्यिक कीमत निकाली जाए तो वह भी
करोड़ों रुपयों में आएगी। इन सबसे साफ जाहिर होता है कि भले ही सरकार राजनीतिक
दलों को सीधे-सीधे धनराशि न देती हो, सरकार
का करोड़ों रुपया राजनीतिक दलों पर खर्च होता है। इसी आधार पर सीआइसी ने अपने 3
जून, 2013 के फैसले में लिखा
है कि हमारी सुनिश्चित राय है कि केंद्र सरकार ने इन राजनीतिक दलों को महत्वपूर्ण
धनराशि का योगदान दिया है चाहे वह अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया हो। यह कहना कि ‘पब्लिक अथॉरिटी’ घोषित करने से राजनीतिक दल भी
शासन की इकाई बन जाएंगे, बिल्कुल
ही तर्कसंगत नहीं है। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जहां निजी संस्थाओं को ‘पब्लिक अथॉरिटी’ घोषित किया गया है और उसके बाद
भी उनका शासन या सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ संस्थाएं जिनके नाम एकदम याद
आते हैं वे हैं- दिल्ली पब्लिक स्कूल, रोहिणी; माउंट सेंटमेरी स्कूल, दिल्ली; इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली; पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन, मोहाली; और चंडीगढ़ लॉन टेनिस
एसोसिएशन। अगर केवल शासन की इकाइयां ही ‘पब्लिक
अथॉरिटी’ होतीं या सब पब्लिक
अथॉरिटी शासन की इकाइयां होतीं, तो
आरटीआइ एक्ट कि धारा 2(एच) में ‘पब्लिक
अथॉरिटी’ की परिभाषा देने की कोई
आवश्यकता ही नहीं थी।
इस
सबके अलावा तीन और बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली बात तो यह कि राजनीतिक दलों को
संवैधानिक शक्ति प्रयोग करने का अधिकार है और वे इसका प्रयोग करते हैं। दल-बदल
विरोधी कानून के अंतर्गत राजनीतिक दल जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों को संसद
या विधानसभा से बाहर निकाल सकते हैं। इस शक्ति के प्रयोग करने का अधिकार होना ही
राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था का दर्जा देता है। दूसरे, कोई भी संस्था अपने आपको
राजनीतिक दल नहीं कह सकती जब तक उसका पंजीकरण केंद्रीय चुनाव आयोग में न हो। यह
व्यवस्था जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29-ए के अंतर्गत है। तीसरी बात यह है कि
सब राजनीतिक दल हर समय यह कहते रहते हैं कि वे सार्वजनिक हित में काम करते हैं।
अगर यह बात सही है तो राजनीतिक दलों से अधिक सार्वजनिक संस्था तो कोई और हो ही
नहीं सकती और अगर सार्वजनिक संस्थाएं ‘पब्लिक
अथॉरिटी’ नहीं होंगी तो ‘पब्लिक अथॉरिटी’ और कौन होगा? जितना जल्दी राजनीतिक दल इस
बात को मान लें देश, समाज, लोकतंत्र और जनता के लिए उतना
ही अच्छा होगा।
(लेखकः जगदीप एस छोकर, आइआइएम
अहमदाबाद के पूर्व डीन और एडीआर के संस्थापक सदस्य हैं)