Chhattisgarh
Khabar: Chhattisgarh: Wednesday, 22 April 2015.
आम
जनता को जानने के हक के लिये अभी संघर्ष करना है. जनता को सूचना का कानूनी अधिकार
भले ही दे दिया है पर इससे इंकार किया जाना मुश्किल है कि अभी भी आम जनता तो क्या
विभागों के लोक सूचना अधिकारियों तक में इस कानून की जानकारी और जागरूकता का अभाव
है. मिसाल के तौर पर राजस्थान में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ 18 प्रतिशत
लोक सूचना अधिकारियों को इसके आवेदन फार्म तक की जानकारी नहीं है और तो और केवल 20
प्रतिशत पीआईओ को पता है कि इस नए कानून के तहत उन्हें पीआईओ के रूप में जनता और
अपने विभाग के बीच सूचना के आदान-प्रदान का माध्यम बनाया गया है.
रपट
के बारे में सूचना के अधिकार के अधिकार की जानकारी जिन लोगों को है उनमें से बहुत
कम लोग इसका उपयोग कर रहे हैं. बाजार प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता मामलों पर अध्ययन
एवं परामर्श सेवा देने वाले गैर सरकारी संगठन कट्स इंटरनेशनल ने महात्मा गाँधी
रोजगार गारंटी योजना, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार
योजना और इंदिरा आवास योजना में भ्रष्टाचार का पता लगाने और इसे रोकने के लिए
आरटीआई के उपयोग और प्रभाव जानने के लिए एक सर्वेक्षण किया. यह सर्वेक्षण राजस्थान
के शहरी और अर्धशहरी इलाकों में किया गया.
कट्स
की इस रिपोर्ट को प्रस्तुत करने वाले मधुसूदन शर्मा ने कहा कि इन योजनाओं में 78
प्रतिशत पीआईओ ने कहा कि उन्हें इस कानून की जानकारी है, पर
उनमें से ज्यादातर ने इस अधिनियम के तहत सूचना उपलब्ध कराने में उदासीनता दिखाई.
कट्स की सर्वे रिपोर्ट की जानकारी देते हुए संस्था के निदेशक जॉर्ज चेरियन ने
बताया कि जयपुर और टोंक जिलों में संस्था इस सर्वेक्षण में मात्र 37 प्रतिशत लोगों
ने बताया कि उन्होंने सूचना के अधिकार के बारे में सुना है, जबकि
इनमें से 5-6 प्रतिशत लोग ही इसका उपयोग कर रहे हैं.
राजस्थान
में मात्र 26 प्रतिशत लोग जानते हैं कि आरटीआई के लिए कोई आवेदन फार्म भी होता है.
जबकि सिर्फ सात आठ प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जिन्हें आरटीआई के तहत 30 दिन
में जवाब मिलने की समय सीमा अथवा सूचना न मिलने पर प्रथम अथवा द्वितीय अपीलीय अधिकारी
की जानकारी है. रिपोर्ट के मुताबिक 43 लोगों ने कहा कि भ्रष्टाचार रोकने में
आरटीआई एक सक्षम हथियार हो सकता है. 39 प्रतिशत ने कहा कि यह कानून लागू होने से
सरकार की योजनाओं में पारदर्शिता आई है.
सर्वे
में शामिल किए गए लोगों ने कहा कि निगरानी की कमी,
बड़े अधिकारों के ध्यान
न देने और जनभागीदारी के अभाव में नरेगा, इंदिरा आवास योजना और स्वण
जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना जैसे कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार को जन्म मिलता है.
श्री चेरियन ने कहा कि सूचना के अधिकार के साथ-साथ जबावदेही का अधिकार भी होना
चाहिए, ताकि सरकार के हर स्तर पर सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित कराई
जा सके. राजस्थान सरकार के प्रशासनिक सुधार विभाग के उपसचिव श्री एसपी बस्वाला ने
कहा कि नरेगा और इंदिरा आवास जैसी योजनाओं में जन-भागीदारी बहुत जरूरी है. कहा गया
है कि आम लोगों को उनके अधिकारों की प्रति जागरूक किया जाएगा, तभी
कल्याणकारी योजनाओं को कारगर तरीके से लागू किया जा सकता है.
इधर
सूचना के अधिकार पर केंद्रित योजना आयोग को विजन फाऊंडेशन द्वारा पूर्व में सौंपे
गए दस्तावेज के अनुसार संविधान के अनुच्छेद १९ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
अधिकार की रक्षा में कहा गया है-भारत के सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति और अभिभाषण की
स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है.साल १९८२ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा
कि सरकार के कांमकाज से संबंधित सूचनाओं तक पहुंच अभिव्यक्ति और अभिभाषण की
स्वतंत्रता के अधिकार का अनिवार्य अंग है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में
कहा-सरकारी कामकाज में खुलेपन का विचार सीधे सीधे सरकारी सूचनाओं को जानने के
अधिकार से जुड़ा है और इसका संबंध अभिभाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार
से है जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद 19(ए) में दी गई है. इसलिए, सरकार
को चाहिए कि वह अपने कामकाज से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने की बात को एक
मानक की तरह माने और इस मामले में गोपनीयता का बरताव अपवादस्वरुप वहीं औचित्यपूर्ण
है जब जनहित में ऐसा करना हर हाल में जरुरी हो. अदालत मानती है कि सरकारी कामकाज
से संबंधित सूचनाओं के बारे में गोपनीयता का बरताव कभी कभी जनहित के लिहाज से
जरुरी होता है लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूचनाओं को सार्वजनिक करना
भी जनहित से ही जुड़ा हुआ है.
इडियन
इविडेंस एक्ट,1872, की धारा 76 में वे बातें कहीं
गई हैं जिन्हें सूचना के अधिकार का बीज रुप माना जा सकता है. इस धारा के तहत
प्रावधान किया गया है कि सरकारी अधिकारी को सरकारी कामकाज के कागजात मांगे जाने पर
वैसे व्यक्ति को दिखाने होंगे जिसे इन कागजातों के निरीक्षण का अधिकार दिया गया
है. परंपरागत तौर पर भारत में शासन-तंत्र अपने कामकाज में गोपनीयता का बरताव करता
आ रहा है. इसके लिए अंग्रेजो के जमाने में बने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट का इस्तेमाल
किया गया. इस एक्ट को साल 1923 में लागू किया गया था. आगे चलकर साल 1967 में इसमें
थोड़े संशोधन हुए . इस एक्ट की व्यापक आलोचना हुई है. द सेंट्रल सिविल सर्विस
कंडक्ट रुल्स, 1964 ने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट को और मजबूती प्रदान की
क्योंकि कंडक्ट रुल्स में सरकारी अधिकारियों को किसी आधिकारिक दस्तावेज की सूचना
बिना अनुमति के किसी को को बताने या आधिकारिक दस्तावेज को बिना अनुमति के सौंपने
की मनाही है.
इंडियन
इविडेंस एक्ट, 1872, की धारा 123 में कहा गया है कि
किसी अप्रकाशित दस्तावेज से कोई प्रमाण संबंधित विभाग के प्रधान की अनुमति के बिना
हासिल नहीं किया जा सकता और संबंधित विभाग का प्रधान चाहे तो अपने विवेक से अनुमति
दे सकता है और चाहे तो नहीं भी दे सकता है. सरकारी कामकाज के बारे में सूचनाओं की
कमी को कुछ और बातों ने बढ़ावा दिया. इसमें एक है साक्षरता की कमी और दूसरी है
सूचना के कारगर माध्यम और सूचना के लेन-देन की कारगर प्रक्रियाओं का अभाव. कई
इलाकों में दस्तावेज को संजो कर रखने का चलन एक सिरे से गायब है या फिर दस्तावेजों
को ऐसे संजोया गया है कि वे दस्तावेज कम और भानुमति का कुनबा ज्यादा लगते हैं.
दस्तावेजों के अस्त-व्यस्त रहने पर अधिकारियों के लिए यह कहना आसान हो जाता है कि
फाइल गुम हो जाने से सूचना नहीं दी जा सकती.
साल
1990 के दशक के शुरुआती सालों में राजस्थान के ग्रामीण इलाके के लोगों की हक की
लड़ाई लड़ते हुए मजदूर किसान शक्ति संगठन ने व्यक्ति के जीवन में सूचना के अधिकार
को एक नये ढंग से रेखांकित किया. यह तरीका था-जनसुनवाई का. मजदूर किसान शक्ति
संगठन ने अभियान चलाकर मांग की कि सरकारी रिकार्ड को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, सरकारी
खर्चे का सोशल ऑडिट होना चाहिए और जिन लोगों को उनका वाजिब हक नहीं मिला उनके
शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए. इस अभियान को समाज के की तबके का समर्थन मिला.
इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, नौकरशाह और वकील तक शामिल हुए.
प्रेस
काउंसिल ऑव इंडिया ने साल 1996 में सूचना का अधिकार का पहला कानूनी मसौदा तैयार
किया. इस मसौदे में माना गया कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक निकाय से
सूचना मांगने का अधिकार है.ध्यान देने की बात यह है कि यहां सार्वजनिक निकाय शब्द
का मतलब सिर्फ सरकारी संस्थान भर नहीं था बल्कि इसमें निजी क्षेत्र के सभी उपक्रम
या फिर संविधानएतर प्राधिकरण, कंपनी आदि शामिल हैं. इसके बाद
सूचना के अधिकार का एक मसौदा कंज्यूमर एजुकेशन रिसर्च काउंसिल ने तैयार किया. यह
सूचना पाने की स्वतंत्रता के संबंध में सबसे व्यापक कानूनी मसौदा है. इसमें
अंतर्राष्ट्रीय मानको के अनुकूल कहा गया है कि बाहरी शत्रुओं के छोड़कर देश में हर
किसी को हर सूचना पाने का अधिकार है.
आखिरकार
साल 1997 में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि केंद्र और
प्रांत की सरकारें पारदर्शिता और सूचना के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए काम
करेंगी. इस सम्मेलन के बाद केंद्र सरकार ने इस दिशा में त्वरित कदम उठाने का फैसला
किया और माना कि सूचना के अधिकार के बारे में राज्यों के परामर्श से एक विधेयक
लाया जाएगा और साल 1997 के अंत तक इंडियन इविडेंस एक्ट और ऑफिशियल सीक्रेसी एक्ट
में संशोधन कर दिया जाएगा. सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित केंद्रीय विधेयक के
पारित होने से पहले ही कुछ राज्यों ने अपने तईं सूचना की स्वतंत्रता के संबंध में
नियम बनाये. इस दिशा में पहला कदम उठाया तमिलनाडु ने(साल 1997). इसके बाद गोवा(साल
1997), राजस्थान(2000), दिल्ली(2001)महाराष्ट्र(2002), असम(2002),मध्यप्रदेश(2003)
और जम्मू-कश्मीर(2004) में अधिनियम बने.
सूचना
की स्वतंत्रता से संबंधित अधिनियम, द फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन एक्ट
भारत सरकार ने साल 2002 के दिसंबर में पारित किया और इसे साल 2003 के जनवरी में
राष्ट्रपति की मंजूरी मिली. लेकिन इस
अधिनियम के प्रावधानों को नागरिक समाज ने अपर्याप्त मानकर आलोचना की है. वहीं
सर्वेक्षणों में बार-बार् यह बात सामने आ रही है कि जानकारी,जागरूकता
और प्रतिबद्धता के अभाव में इसनहीं का असर ज़मीन देखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है.
यह एक बड़ी चुनौती है.
(लेखक
दिग्विजय कालेज, के
प्रोफ़ेसर हैं.)