Friday, June 20, 2025

Right to Information Act में सूचना की प्रक्रिया का अनुपालन

Live Law: National: Friday, 20th June 2025.
इस एक्ट से जुड़े एक प्रसिद्ध प्रकरण अरविन्द केजरीवाल बनाम सेण्ट्रल पब्लिक इन्फार्मेशन आफिसर, एआईआर 2012 डेलही 291 के प्रकरण में कहा गया है कि इस धारा के अधीन विहित प्रक्रिया का अनुपालन गोपनीय सूचना के मामले में किया जाना चाहिए, जब सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पर पक्षकार द्वारा प्रदान की जाती है।
आर० के० जैन बनाम भारत संप
, ए आई आर 2013 दिल्ली 24 के मामले में कहा गया है कि सूचना केवल तब प्रदान की जा सकती है, जब मुख्य सूचना आयुक्त द्वारा आज्ञापक प्रक्रिया का पालन करने के पश्चात् यह राय बनाई गई है कि सूचना का प्रकटन लोकहित में होगा। ऐसे मामलों के सिवाय, जिसमें अभिभावी लोकहित शामिल हो, कार्यालय के एसीआर अभिलेख को प्रकट नहीं किया जा सकता है धारा 11 (1) के अधीन प्रक्रिया के आज्ञापक होने के कारण उसका पालन किया जाना है, जिसमें संबद्ध सूचना अधिकारी को, जिससे ए सी आर की मांग की गई है, सूचना प्रदान करना शामिल है। हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश सहित सभी अवर प्राधिकारियों द्वारा सूचना के प्रकटन की इंकारी को संपुष्ट किया गया।
प्रत्युत्तरदाता को सूचना के प्रकटन के पूर्व राज्य सूचना आयोग को चाहिए कि वह याचीगण को नोटिस जारी करे तथा उन्हें उनको आपत्तियों पर सुने। लोक सूचना अधिकारी के समक्ष तथा राज्य सूचना आयोग के समक्ष कार्यवाहियों को नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त की संगति में निष्कर्षित किया जाना चाहिये तथा जहां उस प्रकृति के प्रकटन को ईप्सा भागीदारी फर्म के व्यवसाय के बारे में थी लेकिन यह आवश्यक था कि किसी अन्तिम आदेश को पारित करने के पूर्व याचीगण को सुना जाता। राज्य सूचना आयोग द्वारा पारित आदेशों को एतदद्वारा अपास्त किया जाता है। याचीगण को नोटिस जारी किये जाने के लिए राज्य सूचना आयोग को निर्देशित किया जाता है तथा उन्हें निर्देशित किया जाता है कि ये चतुर्थ प्रत्युत्तरदाता द्वारा दाखिल आवेदन का विनिश्चय करने के पूर्व सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान करें।
आयोग केवल विधि के अनुसार और इस धारा के अधीन अनुरोध पर पक्षकार सूचना के प्रकट करने के लिए प्रक्रिया के अनुपालन में प्रकटन का निर्देश देने के लिए बाध्य है।
अरविन्द केजरीवाल बनाम केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी, ए आई आर 2012 दिल्ली के मामले में कहा गया है कि धारा 11 के अधीन विहित प्रक्रिया का अनुपालन उन दोनों दशाओं में किया जाना चाहिए, जब सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पर पक्षकार द्वारा दी जाती है।
कोई सूचना, जिसकी ईप्सा की जाती है, पर पक्षकार से सम्बन्धित है या पक्षकार द्वारा प्रदान की गयी है।
या उस पर पक्षकार द्वारा गोपनीय रूप में मानी गयी है, सदैव प्रक्रिया है, जैसे कि अधिनियम की धारा 7 (7) और 11 द्वारा अधिकिधत है, जिसका ईमानदारी से अनुसरण किया जाना चाहिए। यह बात हाईकोर्ट ऑफ गुजरात बनाम स्टेट चीफ इन्फार्मेशन कमिश्नर, ए आई आर 2008 गुजरात 371 के मामले में कही गई है।
पर-पक्षकार को बिना सुने और उसकी आपत्ति पर विचार किए बिना बेतुकी प्रार्थना के आधार पर सूचना प्रदान करने का निर्देश देना उचित नहीं।
धारा 11 (1) के अधीन पर पक्षकार से परामर्श किसी सूचना के प्रकटन के पूर्व आवश्यक हो गया है, जो पर पक्षकार से सम्बन्धित है या उसके द्वारा प्रदान की जाती है।
धारा 11 (1) के अधीन, प्रकटन के लिए आधारों को जोड़ने के लिए पर-पक्षकार से कहने की अपेक्षा है। और पर पक्षकार की स्पष्ट अनुमति के बिना सूचना का प्रत्याख्यान करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है।
जयकिशन अग्रवाल बनाम डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस (लाइसेंसिंग) के मामले में कहा गया है कि लोक प्राधिकारी के लिए पर पक्षकार द्वारा दिये गये कथन के प्रकटन के पूर्व पर पक्षकार से विचार विमर्श करना आज्ञापक है।
पर-पक्षकार को, उससे सम्बन्धित सूचना को प्रकट न करने के लिए लोक प्राधिकारों के लोक सूचना अधिकारी को आदेश देने का स्वतः कोई अधिकार नहीं है और लोक प्राधिकारी को धारा 8 (1) (ञ) और धारा 11 (1) के प्रावधानों के निबन्धनों में पर-पक्षकार के मामले का मूल्यांकन करने और यह पता लगाने की अपेक्षा की जाती है कि मांगी गई सूचना प्रकटन से वर्जित नहीं है।
यदि सूचना प्रकटन से वर्जित है, तो लोक प्राधिकारी को यह परीक्षा करनी चाहिए कि क्या ईप्सित सूचना को प्रकट करना लोकहित में होगा और उसका प्रकटन व्यक्तिगत पर पक्षकार के प्रति क्षति को, यदि कोई हो, अमान्य करेगा।
लोक प्राधिकारी को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का समुचित रूप से मूल्यांकन करके निष्कर्ष निकालना चाहिए। इसके पश्चात् सकारण आदेश तद्नुसार पारित किया जाना चाहिए।
एक ओर पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व की आवश्यकता तथा अन्य और वित्तीय संसाधनों के सीमान्त प्रयोग तथा संवेदनशील सूचना की गोपनीयता की आवश्यकता पर विचार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया गया था कि सिविल सेवा परीक्षा में अंकों के सम्बन्ध में ईप्सित सूचना को यांत्रिक ढंग से प्रदान करने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है। अन्य शैक्षिक निकायों की परीक्षाओं की परिस्थिति भिन्न आधार पर स्थित हो सकती है। अस्थाई अंकों को प्रदान करना समस्या उत्पन्न करेगा, जैसा कि ऊपर यथा उद्धृत संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अभिवचन किया गया था, जो लोकहित में नहीं होगा।
यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन, आदि बनाम अंगेश कुमार एवं अन्य, आदि, 2018 के वाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि हालांकि यदि मामला निर्मित किया जाता है जहां कोर्ट यह पाता है कि लोकहित सूचना प्रस्तुत करने की अपेक्षा करता है तब कोर्ट दो गयी तथ्यात्मक स्थिति में निश्चित रूप से ऐसी अपेक्षा करने का अधिकारी है। यदि नियम अथवा पद्धति ऐसी अपेक्षा करते हैं, तब निश्चित रूप से ऐसे नियम अथवा पद्धति को प्रवर्तित किया जा सकता है। वर्तमान मामले में इन सिद्धान्तों पर विचार किये बिना निर्देश जारी किये गये हैं।
टिप्पण-पत्र और आदेश-पत्र की अन्तर्वस्तु को लोक प्राधिकारी द्वारा रखा गया था। लोक सूचना अधिकारी को पर-पक्षकार द्वारा दी गयी सूचना गोपनीय होना नहीं कही जा सकती है।
राशन की दुकान से सम्बन्धित सूचना लोक सूचना है और वह प्रदान की जानी चाहिए। यह निर्णय ए सी सेकर बनाम डिप्टी रजिस्ट्रार ऑफ कोआपरेटिव सोसाइटीज, 2008 (65) ए आई सी 397 के मामले में दिया गया है।
पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना प्रदान नहीं की जा सकती।
राज्य सूचना आयोग पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना उपलब्ध कराने के लिये सार्वजनिक सूचना अधिकारी को निर्देश देने के लिये सक्षम है।
पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना प्रकट की जा सकती है, किन्तु ऐसा करने के पूर्व इस धारा को आज्ञापक अपेक्षा का अनुसरण किया जाना चाहिए।
बैंक से ऋण प्राप्त करने के बारे में पर-पक्षकार से सम्बन्धित सूचना बैंक द्वारा प्रदान नहीं की जा सकती क्योंकि बैंक को उसके ग्राहकों के लेखा की गोपनीयता बनाये रखने की आबद्धता है।
पर पक्षकार से सम्बन्धित सूचना का प्रत्याख्यान पर पक्षकार की सम्मति को अभिप्राप्त करने के पश्चात् किया गया है।