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Hindi: National: Sunday, 31 January 2016.
“आम नागरिकों के लिए जानकारी का
हथियार बना यह कानून संस्थागत सुधारों के साथ जवाबदेही की भी मांग करता है”
सूचना
के अधिकार की राह में रोड़े ही रोड़े हैं। केंद्रीय सूचना आयोग के पास 33 हजार से अधिक आवेदन सुनवाई के लिए अटके हुए हैं।
राज्य सूचना आयोगों का भी बुरा हाल है। एक अध्ययन के मुताबिक मध्य प्रदेश सूचना
आयोग के पास जितने मामले सुनवाई के लिए लंबित हैं, उनके
निपटारे में 60 साल लगेंगे और पश्चिम बंगाल
सूचना आयोग के पास लंबित आवेदनों की सुनवाई के लिए 18
साल लगेंगे। केंद्रीय सूचना आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उत्तर प्रदेश
तक के सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ रहा
है। इस तरह मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान,
मणिपुर, असम जैसे राज्यों में सूचना आयोग ठीक से काम नहीं कर
रहे और न ही आयुक्तों की नियुक्तियां हो रही हैं। इस बारे में जनता के जानकारी के
अधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) की अंजलि भारद्वाज ने आउटलुक को
बताया कि सरकारों की पूरी कोशिश है कि सूचना के अधिकार के ढांचे को ही इतना
निष्प्रभावी बना दिया जाए कि लोग इस कानून से विरक्त हो जाएं। एक जानकारी को हासिल
करने के लिए अगर किसी भी व्यक्ति को सालों इंतजार करना पड़ता है तो यह कानून का ही
उल्लंघन है। सूचना आयोगों को इसी सोच के तहत लगातार निष्प्रभावी बनाया जा रहा है।
सूचना
का अधिकार कानून बनाने में निर्णायक भूमिका निभाने वाली अरुणा रॉय ने इस बारे में
बताया कि अब जरूरत सूचना के अधिकार को और अधिक मजबूत बनाने वाले कानूनों को लाने
की है। सूचना के अधिकार कानून को आम जनता के लिए लंबे समय तक प्रभावी बनाने के लिए
जवाबदेही कानून को लाने की जरूरत है। अरुणा रॉय ने आउटलुक को बताया कि ऐसे में एक
जवाबदेही कानून को लाने के लिए जमीन तैयार हो रही है और इसकी गूंज राजस्थान में
निकल रही 100 दिनों की जवाबदेही यात्रा में
भी सुनाई दे रही है।
राजस्थान
में इस यात्रा को संचालित कर रहे मजदूर किसान संघर्ष समिति के निखिल डे का कहना है
कि आज भी लोगों में बड़े पैमाने पर सूचना के अधिकार में विश्वास है और वे बड़े
पैमाने पर इसे इस्तेमाल कर रहे है। करीब 80
लाख लोग हर साल सूचना
पाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल कर रहे हैं। जानकारी पहले चरण में नहीं मिल रही
है, इसलिए लोग दूसरी अपील में जा रहे हैं। राज्य सूचना
आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग के पास जानकारी हासिल करने के लिए आवेदन कर रहे हैं।
आज सरकार को सोचने की जरूरत है कि आखिर लोगों को पहले ही चरण पर जानकारी क्यों
नहीं मिल रही है। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि जिन जानकारियों को सरकारों को सूचना के
अधिकार कानून की धारा 4 के तहत खुद-ब-खुद सार्वजनिक
करना चाहिए था, वे नहीं कर रही हैं। यही वजह
है कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी जाने वाली 70 फीसदी
जानकारियां इन्हीं के बारे में होती हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर देश के
तमाम मुख्यमंत्री कार्यालयों की वेबसाइटों पर सूचना के अधिकार से संबंधित
जानकारियों के खुलासे पर एनसीपीआरआई के हालिया सर्वे से यह उजागर होता है कि बहुत
सी जरूरी जानकारियां वेबसाइट पर नहीं हैं और कई राज्यों जैसे पंजाब, महाराष्ट्र,
तमिलनाडु आदि राज्यों
में मुख्यमंत्री कार्यालय की अलग से वेबसाइट ही नहीं है। जिन 20 राज्यों में एक वेसाइट है भी उनमें से 60 फीसदी के पास सूचना के अधिकार कानून के तहत कोई भी
जानकारी नहीं डाल रखी है। ऐसे 20
राज्यों में गुजरात, सिक्किम,
तेलंगाना, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल,
झारखंड और हरियाणा आदि
शामिल हैं। और तो और जिन 14
राज्यों ने अपनी वेबसाइट
पर सूचना के अधिकार संबंधी जानकारी दे रखी हैं, उनमें
से महज 9 राज्यों ने जन सूचना अधिकारी
का ब्यौरा दे रखा है।
