नवभारत
टाइम्स: लखनऊ: Sunday, 12 July 2015.
बड़ी
उम्मीदों के साथ दस साल पहले लागू किया गया सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई एक्ट)
निष्क्रिय होता जा रहा है। इस कानून को कमजोर करने का जिम्मा सीधे तौर पर प्रदेश
की अफसरशाही को जाता है, जो अपनी मनमानी छिपाने के लिए
इस कानून के तहत मांगी गई सूचनाएं देने से किनारा कर रहे हैं। सूचनाओं के लिए
सूचना आयोग में लंबित पचास हजार से ज्यादा अपीलें इसका उदाहरण हैं।
20% को ही मिलती है सूचना
सूचना
का अधिकार कानून लागू हुए दस साल बीत चुके हैं, लेकिन
अभी भी आरटीआई एक्ट के तहत मांगी गई सूचनाएं महज बीस फीसदी लोगों को ही पहली स्टेज
पर यानी विभागीय जनसूचना अधिकारी के जरिए मिल रही हैं। मुख्य सूचना आयुक्त जावेद
उस्मानी बताते हैं कि अस्सी फीसदी लोगों को आज भी सूचनाओं के लिए आयोग में अपील
करनी पड़ रही है, जिसके कारण आयोग पर सुनवाई का
दबाव लगातार बढ़ रहा है।
दी
जाती है चेतावनी
सूचना
आयुक्त हर महीने समीक्षा बैठकों में संबंधित विभागों के जनसूचना अधिकारियों को
चेतावनी देते हैं। पिछले दिनों सूचना आयुक्त स्वदेश कुमार और हाफिज उस्मान ने
अधिकारियों को सूचना न देने पर जेल भेजने तक के नियमों की जानकारी देते हुए कानून
के तहत निर्धारित तीस दिनों की समयावधि में सूचनाएं देने के चेतावनी दी, लेकिन आयोग की इस चेतावनी का भी असर देखने को नहीं
मिल रहा।
कर्मचारियों
की कमी बड़ा कारण
सूचना
आयोग हो या फिर सरकारी दफ्तर अधिकारियों और कर्मचारियों की कमी सूचना का कानून में
बड़ी रुकावट पैदा कर रही है। विभागों में जिम्मेदार अधिकारियों को ही जनसूचना
अधिकारी का काम दिए जाने से वह इस कानून की ओर ध्यान नहीं दे पाते। वहीं सूचना
आयोग में कर्मचारियों की कमी के चलते लंबित अपीले कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं।
आरटीआई एक्टिविस्ट शंकरम् बताते हैं कि आयोग में क्षमता से ज्यादा अपीलें लंबित
होने का परिणाम यह है कि जिस मामले की सुनवाई कर आयोग तीस दिनों में सूचना देने का
आदेश संबंधित विभाग को देता है,
उस मामले की दोबारा
सुनवाई का नंबर छह से आठ महीने बाद आता है। मुख्य सूचना आयुक्त ने पिछले दिनों इसी
के चलते आयोग में कर्मचारियों के रिक्त पदों को भरने के लिए शासन को प्रस्ताव भेजा
है।