BBC: National: Thursday, April 30, 2015.
खपरैल
का घर और फ़र्नीचर के नाम पर बैठने को छोटी-छोटी मोढ़ियाँ. पुराने संदूकों पर अब
धुंधला गए कुछ नाम. रंगों के नाम पर महज़ खिला हुआ सुर्ख लाल बोगनवेलिया का पेड़.
राजस्थान
के राजसमन्द ज़िले की भीम तहसील के देव डूंगरी गाँव में गोबर-मिट्टी से लिपे-पुते
इस छोटे से घर को देखकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि इसी कच्चे आँगन में आज से
पच्चीस साल पहले एक मज़बूत आंदोलन की इबारत लिखी गई थी.
अड़सठ
साल की चुन्नी माँ सूचना के अधिकार आंदोलन की शुरुआत से ही गवाह रही हैं.
कुछ-कुछ
झुर्रियों वाले उनके चेहरे पर न जाने कितनी चिंता की रेखाएं उभरी हैं.
मज़दूरी
से गुज़ारा करते थे चुन्नी माँ और उनके पति मोहन बा.
वो
याद करती हैं, "आज से तीस साल पहले जब अकाल
राहत की मज़दूरी होती थी सिर्फ़ 11 रुपये प्रतिदिन. पर उन्हें
मिलते थे कभी छह, तो कभी चार रुपये."
चुन्नी
माँ बताती हैं, “ग़रीब की कौन सुने? शिकायत करने पर कोई सुनवाई नहीं थी. या तो डांट कर
भगा देते या फिर काम पर नहीं लगाते. मस्टर रोल तो आँखों देखने को ही नहीं मिलता था, क्योंकि उसे घर पर रखते थे वार्ड मेम्बर और सरपंच. और
मज़दूरों का हिसाब लिखते थे कच्चे कागज़ में.”
“एक बार सबको मज़दूरी मिली 4 रुपये 70 पैसे के हिसाब से तो फिर
हिम्मत करके तहसील में शिकायत की अर्ज़ी दी और कम पैसे लेने से मना कर दिया. शुरू
में तो सबने साथ देने का वायदा किया पर आख़िर भूख से परेशान लोगों ने सोचा- जितना
मिल रहा है, उतना ही ले लो.”
चुन्नी
माँ अकेली रह गईं. पांच-छह साल संघर्ष करने के बाद अपने हक़ की मज़दूरी मिली.
आंदोलन
उन्हें
यह हिम्मत मिली मज़दूर किसान शक्ति संगठन से.
"चोरीवाड़ो घणो हो गयो रे, यो सरपंच रुपया खा ग्यो रे,कोई तो मूँडे बोलो..."
मतलब
चोरी बहुत ज़्यादा हो रही है,
सरपंच ने रुपया खा लिया
है, कोई तो बोलो.
देव
डूंगरी से निकली यह आवाज़ धीरे-धीरे भीम पहुंची, फिर
ब्यावर, राजधानी जयपुर और राजस्थान के
कोने-कोने में.
अपने-अपने
घर से किलो-दो किलो मक्का,
बाजरी, गेहूं जो कुछ था लेकर 1996
में ब्यावर के चांग गेट चौराहे पर लोग 40 दिन धरने पर बैठे.
मिला
हक़
जगह-जगह
जन-सुनवाई, जयपुर में 53 दिन तक आंदोलन,
दिल्ली में प्रदर्शन के
बाद आखिर सूचना का अधिकार लेकर ही आए.
चुन्नी
माँ कहती हैं, "मैं भले ही अंगूठा छाप हूँ पर
अब मेरी ताक़त बढ़ी है."
मज़दूर
किसान शक्ति संगठन की नींव का गवाह रहे घर के पास अब एक नया साधारण सा दफ़्तर बन
गया है. पर यहाँ भी कोई तख़्ती या बोर्ड नहीं.
इस
जन आंदोलन की आवाज़ इतनी दूर तक पहुँच चुकी है कि शायद यह घर किसी परिचय का मोहताज
भी नहीं.
पचपन
वर्षीय मीरा ने सूचना के अधिकार से सरपंच,
सचिव के सामने 'बोलने की हिम्मत' पाई
है और उनके जैसे आम ग्रामीण स्त्री-पुरुष अब बिना डरे प्रशासन से सूचना मांग सकते
हैं.
'भ्रष्टाचार कम हुआ'
देव
डूंगरी निवासी नारायण सिंह कहते हैं,
“सूचना के अधिकार से
भ्रष्टाचार कम हुआ है. पहले सड़क बनती ही नहीं थी और भुगतान हो जाता था. अब राशन
का गेहूं या पेंशन नहीं मिलने पर आम आदमी अर्जी लगाकर जब सूचना मांगता है तो राशन
डीलर घर पर आकर गेहूं दे जाता है.”
'हमारा पैसा, हमारा हिसाब'
का नारा बुलंद करने वाली
सुशीला कहती हैं, “जब मैं अपने बेटे को दस रुपये
देकर बाज़ार भेजती हूँ तो वापस आने पर पूछती हूँ कि कितने पैसे बचे, क्या खर्च किया. तो फिर सरकार जो हमारे लिए करोड़ों रुपये
भेज रही है, उसका हिसाब हमें क्यों नहीं
पूछना चाहिए?”
देव
डूंगरी से शुरू हुए आंदोलन से 'सूचना', 'रिकॉर्ड'
और 'संगठन'
की ताक़त की अहमियत
सामने आई है. पर क्या वाकई भ्रष्टाचार कम हुआ है?
केसर
सिंह कहते हैं, “अब भी अधिकारी तभी डरते हैं जब
कोई संगठन साथ हो. अकेले व्यक्ति से नहीं. कहते हैं, सूचना
लेकर क्या कर लेगा वो?”
'बातां सुणजो रे'
देवडुंगरी
यू्ं बाहर से हर दूसरे गांव जैसा ही दिखता है लेकिन वहां की कुछ सौ की आबादी के
अंदर जो बदला है -वो ये कि 25 साल पहले शुरू हुई लड़ाई का
तेवर अब भी जारी है.
1 मई को ये वादा वो फिर दोहराएगे
कि लोकतंत्र में सूचना मांगना और मिलना जन्म सिद्ध अधिकार है. एक संगठन के साथ ने
सफर थोड़ा आसान जरूर किया है.