Bhadas4Media: Kolkata: Wednesday, March 26, 2014.
स्वतंत्र
भारत के इतिहास में सूचना का अधिकार अधिनियम को मील का पत्थर माना जा रहा है।
निश्चित तौर पर इस कानून को बनाने में जनहित का काफी ध्यान रखा गया है किन्तु फिर
भी इसमें, अन्य भारतीय कानूनों की ही तरह, नौकरशाही के मनमानेपन पर अंकुश लगाने का इस कानून में
भी कोई प्रावधान नहीं है। मेरे विचार से भारतीय शासन को आज भी वास्तव में ब्रिटिश
राज की भांति नौकरशाह ही संचालित करते हैं और कोई कानून बनाने से पहले उनसे सलाह
मशविरा किया जाता है कि इससे उनको तो कोई तकलीफ नहीं है मानो कि जनप्रतिनिधियों को
जनता की बजाय नौकरशाहों की तकलीफें सुनने के लिए चुना गया हो। सूचना कानून की
उद्देशिका में जो उद्देश्य बताये गए हैं उनको पूरा करने का किसी का कोई दायित्व
नहीं बताया गया है और न ही इन शब्दों की आगे अधिनियम में कोई पुनरावृति की गयी है।
यद्यपि
सूचना कानून में 30 में सूचना प्रदानगी की कल्पना
की गयी व सूचना प्राप्त नहीं होने पर अपीलें दायर करने का प्रावधान है। कानून के
अनुसार प्रथम अपील अधिकरी अधिकतम 45 दिन में अपील पर निर्णय देगा।
किन्तु प्रथम अपील अधिकारी द्वारा अपने कर्तव्यों की निष्ठापूर्वक अनुपालना न करने
पर कोई दंड का प्रावधान अधिनियम से गायब है। ठीक इसी प्रकार आयोगों द्वारा निर्णय
देने की कोई समय सीमा कानून में नहीं है। अत: सूचना देने हेतु निर्धारित 30 दिन की प्रारम्भिक समय सीमा अर्थहीन व शून्य है और
अपरिपक्व लोगों को मात्र एक भ्रमजाल में फंसाने का उपकरण है। सूचना आयोग ट्रिब्यूनल है और ट्रिब्यूनल का गठन जनता को
शीघ्र और सस्ता न्याय देने के लिए किया जाता है जहां जटिल कानूनी प्रक्रियाओं का
अनुसरण नहीं होता है। किन्तु “सूचना आयोग” आज आयोग कम और “अयोग्य” ज्यादा दिखाई देते हैं।
मद्रास
उच्च न्यायालय का एक औसत न्यायाधीश,
जहां जटिल विधिक व तथ्य
सम्बंधित प्रश्न भी अन्तर्वलित होते हैं,
प्रतिदिन 25 मामले निर्णित करते हैं जबकि केन्द्रीय सूचना आयोग में
एक बेंच प्रतिदिन मात्र 10 निर्णय कर रही है और जम्मू –कश्मीर सूचना आयोग ने तो इसकी पराकाष्ठा ही पार कर दी
है जहां एक बेंच एक दिन में मात्र 3 निर्णय ही पारित करती है।
परिणाम यह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आज 4
वर्ष पुराने बहुत से मामले भी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं| सूचना का कानून भारत में कितना सफल है इसका इस तथ्य
से सहज अनुमान लगाया जा सकता है। अब जनता को किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए।
सूचना
आयुक्तों द्वारा अधिनियम के उद्देश्यों के विपरीत आचरण करने से आम नागरिक व्यथित
हैं। ऐसा ही एक प्रकरण कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष आया जिसमें अखिल कुमार रॉय
ने दिनांक 25 मई 2009 को प.बंगाल सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपील
प्रस्तुत की, किन्तु उस पर समय पर निर्णय
नहीं हुआ क्योंकि आयोग के पास बकाया मामलों का अम्बार लगा हुआ था। प. बंगाल राज्य
सूचना का अधिकार नियमों के अंतर्गत अपील पर निर्णय के विषय में कोई समय सीमा
निर्धारित नहीं थी। कानून में यद्यपि प्रथम अपील के लिए निर्णय हेतु 30 दिन की समय सीमा निर्धारित है व आपवादिक
परिस्थितियों में वह सकारण 45 दिन के भीतर निर्णय दे सकता
है।
उच्च
न्यायालय का विचार रहा कि द्वितीय अपील का निस्तारण इसलिए नहीं किया गया है
क्योंकि कानून में द्वितीय अपील के निस्तारण के लिए कोई समय सीमा नियत नहीं है।
फिर भी द्वितीय अपील अधिकारी सूचना आयोग का कर्तव्य है कि वह द्वितीय अपील पर
निर्णय एक तर्कसंगत समय सीमा में करे|
प्रथम अपील में
असंतोषजनक निर्णय से द्वितीय अपील की जाती है व धारा 7 के अंतर्गत दिए निर्णय से व्यथित होने पर प्रथम अपील
की जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अधिनियम द्वारा प्रदत्त चिंगारी रुपी शक्ति की
गति द्वितीय अपील में कुंद व लुप्त हो गई है। अधिनियम के तैयार किये गए दिसम्बर 2004 के प्रारम्भिक प्रारूप में द्वितीय अपील के विनिश्चय
की समय सीमा 30 दिन रखने का प्रावधान था
किन्तु बाद में इसका त्याग कर दिया गया। इस कारण द्वितीय अपील की योजना ने धारा 6 के अंतर्गत आवेदन को दर-दर भटकने, हिचकोले खाने के लिए और इस प्रकरण की भांति
न्यायालयों की अवांछनीय कार्यवाही की ओर
धकेल दिया है। न्यायाधीश का मत रहा कि मेरे विचार से प्रथम अपील के निर्णय हेतु व
सूचनार्थ आवेदन के निपटान हेतु निश्चित अधिकतम समय सीमा को ध्यान रखते हुए अपील
दायर करने के 45 दिन के भीतर द्वितीय अपील पर
निर्णय हो जाना चाहिए। अधिनियम की भावना को ध्यान में रखते हुए यह समय सीमा मेरे
विचार से तर्कसंगत है। तदनुसार न्यायाधीश ने द्वितीय अपील का निपटान 45 दिन में देने के निर्देश दिए और रिट याचिका अखिल
कुमार रॉय बनाम प. बंगाल सूचना आयोग का दिनांक 7 जुलाई
2010 को निपटान दिया गया।