Wednesday, November 17, 2010

RTI पर गुमराह करने वाले अफसरों को सजा मिले

संजय वर्मा; नवभारत टाइम्स;  17 Nov 2010,
सरकार ने जनता को सूचना का अधिकार तो दिया है और इसके उल्लंघन पर जुर्माने की व्यवस्था भी की है, लेकिन फिर भी इस कानून को भोथरा बनाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारियों के प्रति सरकारी अमला कैसा गैरजिम्मेदाराना रुख अपनाता है, इसका एक और नमूना देखिए। विदेश मंत्रालय से किसी नागरिक ने भोपाल गैस त्रासदी के आरोपी एंडरसन के देश छोड़ कर जाने वाली स्थितियों के बारे में जानकारी मांगी थी। उसमें एक सवाल यह भी था कि दिसंबर 1984 में जब वह भागा, उस समय मंत्रालय का मंत्री कौन था?
विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने पहले तो इस आवेदन का जवाब देने से ही मना कर दिया। फिर बाद में सूचना आयोग की तरफ से जब कारण बताओ नोटिस भेजा गया, तो अफसरों ने उलझा हुआ, भ्रमित करने वाला बेतुका सा जवाब दिया। उन्होंने लिखा कि उन्हें मालूम नहीं कि तब मंत्री कौन था और यह पूरा मामला मिनिस्ट्री ऑफ केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स से संबंधित है, उसी से पूछा जाए।
जाहिर है कि जवाब देने वाले अफसर ने आरटीआई की मूल भावना से खिलवाड़ किया और जवाब के नाम पर मात्र खानापूरी कर दी। ऐसे वाकये अक्सर सामने आते हैं जिनमें साफ दीखता है कि अधिकारी सूचना देने के नाम पर नागरिकों को गुमराह करते हैं, मामले की लीपापोती करते हैं या सूचना मांगने वाले को हतोत्साहित करते हैं।
कभी सूचना देने में अनावश्यक देरी की जाती है, कभी कोई तकनीकी आधार बताकर सूचना देने से मना कर दिया जाता है। कभी इसी तरह के अजीबोगरीब जवाब दिए जाते हैं, जैसा इस बार विदेश मंत्रालय ने दिया है। सिर्फ आरटीआई एक्ट ही नहीं, अक्सर दूसरे अनेक कानूनों को भी अफसर इसी तरह भोथरा और बेमकसद बना देते हैं। वे शब्दों को तोड़-मरोड़ कर उसकी व्याख्या करते हैं। किसी कानून को इस तरह निष्प्रभावी और निरर्थक बनाने वाले अफसरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए और उन्हें कड़ा दंड दिया जाना चाहिए।
प्रतिपक्ष;
विवेक वार्ष्णेय; हमारे सिस्टम में सजा मुमकिन नहीं
अपने देश में अफसरों का रवैया इस तरह का नजर तो आता है, पर उन्हें सजा के घेरे में लाना फिलहाल मुमकिन नहीं है। हमारी न्याय प्रणाली में अभी इसकी व्यवस्था नहीं है कि कोर्ट किसी अधिकारी की इसके लिए जवाब-तलब करे कि उसने जानबूझ कर किसी कानून को तोड़ा-मरोड़ा और उसकी मंशा गलत थी, जिसके लिए उसे दंड दिया जाता है। अभी हमारी न्याय प्रणाली इतनी परिपक्व नहीं हुई है। लेकिन इसके अलावा अफसरों की ऐसी कार्यप्रणाली के पीछे कुछ और बातें भी जिम्मेदार हैं।
यह बात भले ही आधिकारिक रूप से स्वीकार न की जाए, पर सरकारी अधिकारियों की व्यावहारिक ट्रेनिंग इस तरह होती है कि वे सूचनाओं को दबा दें या उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करें जिससे उनका या उनके महकमे का कोई अहित न हो। वे कानून और नियम-कायदे की बारीकियां समझते हैं, इसलिए उन्हें आसानी से इसके लिए कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता कि उन्होंने वह वांछित काम क्यों नहीं किया। कई बार समस्या इसलिए भी पैदा होती है कि जो सूचना मांगी जा रही है, उससे संबंधित रेकॉर्ड काफी पुराने होते हैं।
ऐसे रेकॉर्ड या तो नष्ट किए जा चुके होते हैं या कंप्यूटराइजेशन के अभाव में उन्हें खोज निकालना भारी मशक्कत का काम होता है। अधिकारी चूंकि इस मेहनत से बचना चाहते हैं, लिहाजा वे ऐसे नुक्ते तलाश लेते हैं जिससे कानूनन वे अपने दायित्व से मुक्त हो जाएं। भले ही उससे किसी को कोई फायदा हो या न हो। आम नागरिक भी यह सब जानते हैं। वे समझते हैं कि अधिकारी इरादतन किसी मामले को कानूनी प्रक्रियाओं में उलझा रहा है, लेकिन इसका निदान सिर्फ न्यायपालिका के माध्यम से नहीं होगा। एक तो इसके लिए जरूरी है कि हमारी ब्यूरोक्रेसी के ढांचे और कार्यशैली में बुनियादी बदलाव किए जाएं। दूसरे, अधिकारियों के रवैये में वांछित सुधार तब होगा जब हमारा पूरा समाज इस बारे में जागरूक होगा।