Friday, October 25, 2013

आरटीआई के इस्तेमाल की चुनौती : श्यामलाल यादव

दैनिक भास्कर: New Delhi: Friday, October 25, 2013.
आठ साल ऐसा अरसा नहीं है कि कोई कानून अपनी पूरी ताकत के साथ आम आदमी में रच-बस जाए और उसका असर साफ नजर आने लगे। लेकिन अक्टूबर 2005 में लागू आरटीआई कानून ने अपना असर  दिखाया है। यह आम आदमी के हाथों में निष्ठुर और अक्षम सरकारी मशीनरी से अपनी समस्याएं सुलझाने के लिए कारगर औजार साबित हुआ है।
इस कानून के जरिये सूचना पाने का अधिकार मिलने के बाद राष्ट्रपति सचिवालय से लेकर जमीनी स्तर के सरकारी दफ्तरों तक आरटीआई आवेदनों की बाढ़ आ गई है। गौरतलब है कि आरटीआई के जरिये न सिर्फ सामाजिक स्तर पर सक्रिय लोगों ने जानकारी हासिल की बल्कि आम आदमी ने भी इसका जमकर प्रयोग किया है। इस कानून ने लंबे समय से अटके पड़े पासपोर्ट व राशन कार्ड दिलाए हैं तो बिजली व टेलीफोन विभागों में फंसी पड़ी बकाया राशि भी दिलाई है।
जमीनी स्तर पर समस्याएं सुलझना अच्छी बात है, लेकिन इससे कानून की सफलता आंकी नहीं जा सकती। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने की वास्तविक जिम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों की है। वे लोग जो सरकारी मशीनरी की कार्यशैली को अच्छी तरह समझते हैं। वे यदि कोई मूल्यवान जानकारी बाहर लाते हैं तो उसके जरिये सरकारी कार्यशैली को बदलने पर भी मजबूर किया जा सकता है। जैसे 60 आरटीआई आवेदन लगाकर जानकारी निकाली गई कि साढ़े तीन साल के यूपीए-1 के कार्यकाल में मंत्रियों ने इतनी विदेश यात्राएं कर लीं कि धरती के 256 चक्कर लगा लिए जाते।
इसी तरह जानकारी मिली कि 1500 अफसर चंद्रमा की 74 यात्राओं के बराबर विदेश घूम आए हैं। हड़कंप मच गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हर मंत्री को व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखकर विदेश यात्रा में कटौती करने को कहा। इतना ही नहीं अब सारे दफ्तरों के लिए यह जरूरी है कि वे मंत्रियों व अफसरों की विदेश यात्रा का ब्योरा ऑनलाइन मुहैया कराएं।
यदि पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, छात्र नेता, शिक्षक, सरकारी कर्मचारी जैसे लोग इसका सही और सक्रियता से उपयोग करते तो यह कानून और सफल होता। भारत 90 से ज्यादा देशों में शामिल हैं जहां यह अधिकार 'सूचना की स्वतंत्रता' जैसे भिन्न नामों से लागू है। फिर कुछ तबके ऐसे हैं जो आरटीआई का बहुत ही कारगर इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे मीडिया। यूरोप में बाकायदा पत्रकारों के समूह हैं जो सूचना पाने की स्वतंत्रता का इस्तेमाल पत्रकारिता में करते हैं।
पत्रकारिता की यह विधा 'वॉबिंग' कहलाती है। हमारे देश में 'इंडियन एक्सप्रेस' ने आरटीआई के जरिये काम करने के लिए समर्पित रिपोर्टर रखा है। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर जजों की संपत्ति का ब्योरा देने की शुरुआत आरटीआई के जरिये ही हुई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आवेदन के जवाब में खुद को इस कानून के दायरे से बाहर बताया था, लेकिन बाद में वेबसाइट पर संपत्ति का ब्योरा देना शुरू किया।
आपको आश्चर्य होगा कि बरसों पहले 1964 में ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रस्ताव पारित किया था कि हर मंत्री अपनी संपत्ति व देनदारियों का ब्योरा जाहिर करेगा, लेकिन उस पर अमल नहीं हो रहा था। 2008 में लगाए आरटीआई आवेदनों का ही नतीजा है कि आज हर मंत्री को संपत्ति का ब्योरा देना पड़ रहा है। इसी प्रकार भारतीय बीमा निगम ने (एलआईसी) पांच साल तक प्रीमियम न भरने पर पॉलिसी लैप्स घोषित कर दी थी। आरटीआई से पता चला कि पांच वर्षों में ही एलआईसी ने 5.02 करोड़ पॉलिसियां लैप्स कर दीं। इसने ट्रेड सीक्रेट के नाम पर प्रीमियम राशि बताने से तो इनकार कर दिया, लेकिन शोर मचने पर बंद पॉलिसियां शुरू करने का अभियान चलाया।
ऐसा इस बीमा कंपनी के इतिहास में पहली बार हुआ। आरटीआई के कारण ही संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा देने वाले अपनी उत्तर पुस्तिकाएं भी देख सकते हैं। सांसदों-नेताओं द्वारा निजी सचिवों की नियुक्ति, कृषि विज्ञान केंद्रों और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के जन शिक्षण संस्थान खोलने में अपने रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाने के मामले भी आरटीआई के जरिये ही उजागर हुए।
आरटीआई आवेदन दायर कर जानकारी निकालना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। मेरा अनुभव है कि आरटीआई कानून की धारा 6 (3) और 7 (9) का सर्वाधिक दुरुपयोग होता है। पहली धारा के मुताबिक यदि आवेदन लेने वाला संबंधित अधिकारी नहीं है तो आवेदन को उस तक फारवर्ड किया जाना चाहिए। दूसरी धारा में कहा गया है कि यदि मांगी गई जानकारी जुटाने में बहुत ज्यादा संसाधनों की जरूरत हो तो जानकारी देने से इनकार किया जा सकता है। पहली धारा के बहाने अधिकारी पल्ला झाड़ लेते हैं और जानकारी नहीं देनी हो तो वे दूसरी धारा का प्रयोग करते हैं। फिर धारा 8 (1) में भी विभिन्न प्रकार की छूट दी गई हैं। यदि अधिकारी को जानकारी न देनी हो तो वह इन धाराओं की अपनी तरह से व्याख्या कर लेता है।
जैसे 2009 के आम चुनाव के बाद मैंने निर्वाचन आयोग से बांग्लादेशी होने के संदेह में मतदाता सूची से हटाए गए नामों की संख्या मांगी। आयोग ने मेरा आवेदन सभी राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को भेज दिया। उन्होंने आवेदन हर जिले के जिला निर्वाचन अधिकारियों को फारवर्ड कर दिया। मजे की बात है कि अंतत: आवेदन हर विधानसभा क्षेत्र के नामांकन अधिकारियों के पास पहुंचा। मुझे जवाब में 3000 लिफाफे मिले पर पूरी जानकारी नहीं मिली। जब मैं चुनाव आयोग के अपने परिचित अधिकारी के पास पहुंचा और उन्हें अपना अनुभव बताया तो उन्होंने वहीं अनौपचारिक स्तर पर पूरी जानकारी मुहैया करा दी।
इसलिए आरटीआई आवेदक को जानकारी मांगने पर फोकस रखना चाहिए, प्रश्न नहीं पूछने चाहिए। कानून हमें सूचना का अधिकार तो देता है, लेकिन अधिकारी प्रश्नों का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है। फिर आवेदन के लिए 250 शब्दों की सीमा भी है, जिसमें काफी जानकारी मांगी जा सकती है। इसलिए हमें अप्रासंगिक बातों में शब्द नहीं गंवाने चाहिए।
यह हताशाजनक है कि लोगों के रोजमर्रा के जीवन से सीधे संबंधित राज्य सरकारें इस कानून को लागू करने के प्रति उदासीन हैं। मेरा अनुभव है कि मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश से कोई जानकारी पाना बहुत मुश्किल होता है। सूचना के अधिकार संबंधी कानून में शासक वर्ग की मानसिकता बदलने की क्षमता है, लेकिन लोग यदि जागरूक नहीं रहे तो शासक वर्ग या तो इसे खत्म ही कर देगा या संशोधन ला-लाकर इसकी धार भोथरी कर देगा।
श्यामलाल यादव : पत्रकार और आरटीआई एक्टिविस्ट