Sunday, August 04, 2013

पलटिए नहीं, मानिए : इन दिनों हमारे माननीयों की आपसी समझ और एक जुटता देखते बन रही है.

राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक: New Delhi: Sunday, August 04, 2013.
दागी नेताओं को बचाने तथा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे से बाहर करने के लिए उनमें एकता की गांठ बंधी है. उनके स्वर एक हुए हैं. इसी दस जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने जेल जाने अथवा सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है. चूंकि मामला अधिकतर दलों के बाहुबलियों से जुड़ा है, इसलिए उनमें बेचैनी है. इतना ही नहीं, राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के बारे में भी आम आदमी की ताक-झांक गंवारा नहीं है. वह पार्टियों को सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाने को तैयार नहीं है. इसीलिए केंद्रीय सूचना आयोग के तीन जून को दिये फैसले को पलटने के लिए विधेयक लाने की तैयारी है. इन दोनों फैसलों को इसी मॉनसून सत्र में विधेयक लाकर रद्द करने की तैयारी है. सार्वजनिक मंचों से राजनीति के अपराधीकरण, चुनावों में काले धन के प्रवाह को रोकने तथा पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी डींगें हांकने वाले ये दल अब उसी के ही खिलाफ पीठ कर खड़े हो गये हैं. इससे साफ है कि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से खुद को मुक्त करने को तैयार नहीं हैं. इससे चुनाव सुधार की दिशा में शुरू हुई बड़ी पहल को बड़ा झटका लगने वाला है.
अपराधियों की सियासत में घुसपैठ का सत्तर के दशक में शुरू हुआ सिलसिला आज चरम पर है. हर दल में उनकी पूछ है. चुनावों में धन जुटाने, विरोधी प्रत्याशियों को डराने-धमकाने, फर्जी वोट डालने तथा सत्ता के लिए बहुमत के खेल में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. बदले में उन्हें अपने आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने की खुली छूट होती है. जो ईमानदार नौकरशाह उनके ऐसे कृत्यों के विरोध का दुस्साहस करते हैं, उन्हें उनकी औकात बता दी जाती है. ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश) में खनन माफिया के खिलाफ सख्ती के कारण ही आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल आज निलंबित हैं. कर्त्तव्यनिष्ठ अफसरों के मनोबल को तोड़ने की ऐसी कहानी हर राज्य में मिल जाएगी.
देश में राजनीतिक अपराधीकरण रोकने की लगातार मांग हो रही है. विगत आम चुनाव में दागियों को टिकट न देने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव भी बना था. इसके बावजूद पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले अधिकतर बाहुबलियों को हराकर जनता ने सबक दिया था. हद तो यह है कि वर्तमान सांसदों-विधायकों में से 30 प्रतिशत पर आपराधिक मामले चल रहे हैं. इसीलिए जेल से चुनाव लड़ने पर रोक तथा दो साल से ज्यादा सजा होने पर सदन की सदस्यता खत्म होने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर माननीयों का कोहराम चौंकाने वाला नहीं है. इस आदेश से दागियों की जगह संसद और विधानसभाओं के बजाय जेल होगी. राजनीति को धन कमाने की मशीन समझने वालों पर अंकुश लगेगा और राजनीति में साफ-सुथरे लोगों के आने का मार्ग खुलेगा. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह का यह कहना कि राज्य सभा की एक सीट की कीमत सौ करोड़ तक जाती है तो संसद में भाजपा के उप नेता गोपीनाथ मुंडे का यह बयान कि उन्होंने चुनाव में आठ करोड़ रुपये खर्च किये थे; यह समझने के लिए काफी है कि चुनाव में काले धन का उपयोग किस हद तक हो रहा है. यह जारी रहे, इसीलिए कोर्ट के फैसले को पलटने की तैयारी है.
तर्क दिया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का राजनीतिक दुरुपयोग विरोधियों से वैर भाव साधने में किया जाएगा. दूसरा जबर्दस्त तर्क है कि फैसले से संसद की सर्वोच्चता को आंच आ रही है. इसके पहले भी लोक सभा अध्यक्ष ने संसद में पैसे लेकर सवाल पूछने के आरोप में 11 सांसदों को अयोग्य ठहराने के सर्वोच्च अदालत के फैसले को संसद की सर्वोच्चता में दखल का हवाला देकर मानने से इनकार कर दिया था. इसके पहले, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानो केस में अदालत के फैसले को संसद के जरिये पलट दिया था. और अब फिर जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन संबंधी विधेयकलाने की तैयारी है. मेरी समझ में इससे लोकतंत्र की जड़ें और कमजोर होंगी. राजनीति में अपराधियों और थैलीशाहों की भरमार होगी, जो अपने निजी और व्यावसायिक हित में कानून बनाने के लिए सरकार से सौदेबाजी करेंगे. इतना ही नहीं राजनीतिक अस्थिरता का भी खतरा बढ़ेगा. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पहल कर जो रास्ता दिखाया है, हमें उसी पर चलना चाहिए.
इसी तरह, संसद को आरटीआई के दायरे में रखने के सीआईसी के फैसले को पलटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. इसलिए कि उनके कदम से इसके अलावा और कोई संदेश जनता में नहीं जाएगा कि पार्टियां कालेधन के प्रवाह पर पर्दादारी रखना चाहती है. इससे जनता में उनकी साख ही बिगड़ेगी. लोगों को इससे मतलब नहीं कि राजनीतिक पार्टियां सार्वजनिक उपक्रम हैं या नहीं या चुनाव आयोग यह सब देखने के लिए पहले से ही है. वह सीधा यह मानेगी कि आप भ्रष्ट हैं और यही बने भी रहना चाहते हैं. इस समझ का एक और घाटा दलों को यह होगा कि भ्रष्टाचार और सुशासन पर उनके लंबे-चौड़े वादे और भाषणों पर जनता कान देना बंद करेगी. अकारण नहीं है कि हालिया हुए सर्वे ने ऐसी जनता की तादाद बढ़ी बताया, जो सबके ऊपर विकास चाहती है.
इसके मायने पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ कामकाज है. मतदान के तरीकों में भी संकीर्णता छूटी और नई समझदारी आई है. इसका संकेत और संदेश साफ है कि आपका साबका सावधान और सतर्क जनमानस से पड़ने वाला है. लिहाजा, उसी तरह का व्यवहार भी करना होगा. आरटीआई कानून जनता का हथियार साबित हुआ है कि इसलिए शहरी-ग्रामीण जनता की भावनाएं उनसे जुड़ती जा रही हैं. ऐसे में पार्टियों तक सूचनाएं की पहुंच को रोकने और दागियों पर फैसले बदलने पर उनकी प्रतिक्रियाएं भी प्रचंड होंगी. इसका अनुमान दलों को कर लेना चाहिए. फिर जब आप कहते हैं आपकी जिम्मेदारी, नीतियों को लेकर जनता के प्रति है तो फिर डर क्यों रहे हैं, कीजिए खुलासे और फैसलों की इज्जत. शीर्ष प्राथमिकताओं वाले विधेयक; महिला आरक्षण, लोकपाल, भूमि अधिग्रहण तथा ब्लैकमनी पर रोक आदि पर मतभेद दूर करने के बजाय स्वहित में पार्टियों का झट से एका हो जाना ही बताता है, उनका एजेंडा क्या है.